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त्वम॑ग्ने वा॒घते॑ सु॒प्रणी॑तिः सु॒तसो॑माय विध॒ते य॑विष्ठ। रत्नं॑ भर शशमा॒नाय॑ घृष्वे पृ॒थुश्च॒न्द्रमव॑से चर्षणि॒प्राः ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne vāghate supraṇītiḥ sutasomāya vidhate yaviṣṭha | ratnam bhara śaśamānāya ghṛṣve pṛthu ścandram avase carṣaṇiprāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। वा॒घते॑। सु॒ऽप्रनी॑तिः। सु॒तऽसो॑माय। वि॒ध॒ते। य॒वि॒ष्ठ॒। रत्न॑म्। भ॒र॒। श॒श॒मा॒नाय॑। घृ॒ष्वे॒। पृ॒थु। च॒न्द्रम्। अव॑से। च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:2» मन्त्र:13 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में राजा के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (घृष्वे) पदार्थों के घिसनेवाले (यविष्ठ) अत्यन्त युवन् (अग्ने) अग्नि के सदृश पूर्णविद्या से प्रकाशमान ! (सुप्रणीतिः) उत्तम प्रकार चली हुई नीति जिनके विद्यमान (पृथु) जिनका पुरुषार्थ विस्तृत हो रहा है (चर्षणिप्राः) जो मनुष्यों को व्याप्त होनेवाले (त्वम्) आप (सुतसोमाय) उत्पन्न किया गया ऐश्वर्य वा ओषधियों का रस जिससे उस (शशमानाय) सब के दुःखों के उल्लङ्घन करनेवाले (विधते) अनेक प्रकार के व्यवहार को यथावत् करते हुए (वाघते) बुद्धिमान् के लिये (अवसे) रक्षण आदि के अर्थ (चन्द्रम्) प्रसन्न करनेवाले सुवर्ण और (रत्नम्) रमणीय मनोहर धन का (भर) धारण करो ॥१३॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो धार्मिक शूरवीर विद्वान् लोग शत्रु के बल के उल्लङ्घन करने, परस्पर पदार्थों के घिसने से बिजुली आदि की विद्या के प्रकाश करने और मनुष्यों की रक्षा करनेवाले मन्त्री आदि नौकर होवें, उनके लिये ऐश्वर्य निरन्तर धारण करो ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे घृष्वे यविष्ठाग्ने ! सुप्रणीतिः पृथु चर्षणिप्राः संस्त्वं सुतसोमाय शशमानाय विधते वाघतेऽवसे चन्द्रं रत्नं भर ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव पूर्णविद्यया प्रकाशमान (वाघते) मेधाविने (सुप्रणीतिः) सुष्ठु प्रगता नीतिर्येन सः (सुतसोमाय) सुतः सोम ऐश्वर्यमोषधिरसो वा येन तस्मै (विधते) विविधव्यवहारं यथावत्कुर्वते (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (भर) धर (शशमानाय) सर्वेषां दुःखानामुल्लङ्घकाय (घृष्वे) पदार्थानां सङ्घर्षक (पृथु) विस्तीर्णपुरुषार्थः (चन्द्रम्) आह्लादकरं सुवर्णम् (अवसे) रक्षणाद्याय (चर्षणिप्राः) यश्चर्षणीन् मनुष्यान् प्राति व्याप्नोति सः ॥१३॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये धार्मिकाः शूरा विद्वांसः शत्रुबलस्योल्लङ्घकाः परस्परं पदार्थघर्षणेन विद्युदादिविद्याप्रकाशका मनुष्यरक्षका अमात्यादयो भृत्याः स्युस्तदर्थमैश्वर्य्यं सततं धर ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जे धार्मिक, शूरवीर, विद्वान लोक, शत्रूबल न्यून करणारे, पदार्थांच्या परस्पर घर्षणाने विद्युत विद्या प्रकट करणारे असतात. माणसांचे रक्षण करणारे मंत्री इत्यादी नोकर असतात. त्यांच्यासाठी सतत ऐश्वर्य धारण करा. ॥ १३ ॥